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अ॒ष्टौ व्य॑ख्यत् क॒कुभः॑ पृथि॒व्यास्त्री धन्व॒ योज॑ना स॒प्त सिन्धू॑न्। हि॒र॒ण्या॒क्षः स॑वि॒ता दे॒वऽआगा॒द् दध॒द् रत्ना॑ दा॒शुषे॒ वार्य्या॑णि ॥२४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ष्टौ। वि। अ॒ख्य॒त्। क॒कुभः॑। पृ॒थि॒व्याः। त्री। धन्व॑। योज॑ना। स॒प्त। सिन्धू॑न् ॥ हि॒र॒ण्या॒क्ष इति॑ हिरण्यऽअ॒क्षः। स॒वि॒ता। दे॒वः। आ। अ॒गा॒त्। दध॑त्। रत्ना॑। दा॒शुषे॑। वार्य्या॑णि ॥२४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:34» मन्त्र:24


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सूर्य क्या करता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (हिरण्याक्षः) नेत्र के समान रूप दर्शानेवाली ज्योतियोंवाला (देवः) प्रेरक (सविता) सूर्य (दाशुषे) दानशील प्राणियों के लिये (वार्याणि) स्वीकार करने योग्य (रत्ना) पृथिवी के उत्तम पदार्थों को (दधत्) धारण करता हुआ (त्री) तीन (धन्व) अवकाशरूप (योजना) अर्थात् बारह कोस और (सप्त) सात (सिन्धून्) पृथिवी के समुद्र से ले के मेघ के ऊपरले अवयवों पर्यन्त समुद्रों की तथा (पृथिव्याः) पृथिवी सम्बन्धिनी (अष्टौ) आठ (ककुभः) दिशाओं की (वि, अख्यत्) प्रसिद्ध प्रकाशित करता है, वैसे ही तुम लोग होओ ॥२४ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य्य से पृथिवी तक १२ कोस पर्यन्त हलके भारीपन से युक्त सात प्रकार के जल के अवयव और दिशा विभक्त होती तथा वर्षादि से सबको सुख दिया जाता, वैसे शुभ गुण, कर्म और स्वभावों से दिशाओं में कीर्ति फैला के अनेक प्रकार के ऐश्वर्य को देने से मनुष्यादि प्राणियों को निरन्तर सुखी करो ॥२४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सूर्यः किं करोतीत्याह ॥

अन्वय:

(अष्टौ) (वि) (अख्यत्) विख्यापयति (ककुभः) सर्वा दिशः। ककुभ इति दिङ्नामसु पठितम् ॥ (निघं०१.६) (पृथिव्याः) भूमेः सम्बन्धिनी (त्री) त्रीणि (धन्व) धन्वेत्यन्तरिक्षनामसु पठितम् ॥ (निघं०१.३) (योजना) योजनानि (सप्त, सिन्धून्) भौमसमुद्रमारभ्य मेघादूर्ध्वाऽवयवपर्यन्तान् सागरान् (हिरण्याक्षः) हिरण्यानि ज्योतींषि अक्षीणीव यस्य सः (सविता) सूर्यः (देव) द्योतकः (आ) (अगात्) आगच्छति (दधत्) दधानः सन् (रत्ना) रमणीयानि पृथिवीस्थानि (दाशुषे) दानशीलाय जीवाय (वार्याणि) वर्तुं स्वीकर्त्तुं योग्यानि ॥२४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा हिरण्याक्षो देवः सविता दाशुषे वार्य्याणि रत्ना दधत्, त्री धन्व योजना सप्त सिन्धून् पृथिव्या अष्टौ ककुभो व्यख्यदागाच्च, तथैव यूयं भवत ॥२४ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा सूर्येण पृथिवीमारभ्य द्वादशक्रोशपर्यन्तगुरुत्वलघुत्वयुतानां सप्तविधानामपामवयवाः सर्वा दिशश्च विभज्यन्ते, वर्षादिना सर्वेभ्यः सुखं दीयते, तथा शुभगुणकर्मस्वभावैर्दिगन्तां कीर्त्तिं सम्पाद्य विविधैश्वर्यदानेन मनुष्यादीन् प्राणिनः सततं सुखयत ॥२४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! सूर्यामुळे जसे पृथ्वीपासून १२ कोसांपर्यंत सात प्रकारचे जल व दिशा विभक्त होते व पर्जन्याने सर्वांना सुख मिळते तसे शुभ गुण, कर्म स्वभावांनी सर्व दिशांना कीर्ती पसरवून अनेक प्रकारचे ऐश्वर्य प्राप्त करून देऊन सर्व माणसांना सुखी करा.